अगले दिन हम लोगों ने hornbill bird देखने का कार्यक्रम बनाया था । hornbill कैंप जाने मे कितना समय लगेगा ये हर कोई अलग बताता था कोई कहता हाथी से जाने मे ४ घंटे लगते है और पैदल २-३ घंटे लगते है तो कोई कहता कि पैदल जाने मे ४ घंटे लगते है और हाथी से २- ३ घंटे मे पहुँच जाते है।किस भी हाल मे ७-८ घंटे तो लगने ही थे। हाथी से इसलिए जाना पड़ता है क्यूंकि नदी क्रॉस करनी पड़ती है और वहां पर एक लकड़ी की बोट तो होती है पर उसे चलाने के लिए कोई नहीं होता है। :(
खैर चूँकि कैरी था इसलिए हम लोगों ने सोचा की २ घंटे मे जितनी दूर जा पायेंगे उतनी दूर ही जायेंगे क्यूंकि वापिस भी तो आना था । सबने कहा कि हाथी से जाइए क्यूंकि जंगल मे पैदल जाना मुश्किल है पैदल जाने मे लीच वगैरा बहुत चिपकती है। और हाथी पर सवारी करने को हम तैयार नहीं थे अरे भाई डर जो लगता है। पर चूँकि कोई और आप्शन नहीं था और अगली बार फिर इतनी जहमत उठाकर आयेंगे कि नहीं ये भी पता नहीं था। और एक लालच था कि शायद hornbill दिख जाए सो हम जिंदगी मे पहली बार हाथी कि सवारी करने को तैयार हुए।
अभी हम लोग नाश्ता कर ही रहे थे कि गेस्ट हाउस वाले ने बताया कि हाथी आ गया है। वो क्या है कि अगर जंगल मे हाथी से जाना होता है तो एक दिन पहले बताना पड़ता है । क्यूंकि हाथी को तैयार करना पड़ता है। ऐसा वो लोग कहते है।
सुबह नाश्ता करने के बाद कैरी को गेस्ट हाउस मे सैटल करके हम लोग निकले । पहले तो हाथी पर बैठना ही इतना मुश्किल काम उसपर जब वो चला तो हमारी तो जान ही निकल गयी। ऐसे हिचकोले खा रहा था कि बस पूछिए मत। ५ मिनट बाद ही हमने शोर मचाया कि बस रोको अब हमे और नहीं जाना । और हाथी को रुकवा दिया तो हमारे पतिदेव बोले कि डर क्यूँ रही हो कुछ नहीं होगा। बस डरो मत और शोर मत मचाओ वर्ना हाथी डिस्टर्ब होगा । और बोले कि सुबह तो तुमने रास्ता देखा ही है फिर क्यूँ डर रही हो। तो हमने कहा कि हमे कुछ नौशिया सा हो रहा है । अब हाथी जी कि मस्तानी चाल से हमें नौशिया सा महसूस होने लगा क्यूंकि नाश्ता करके जो निकले थे। :)
असल मे सुबह हम लोग नदी तक कैरी को घुमा कर लाये थे और रास्ते भर हाथी के पैरों के निशान भी देखे थे । खैर हाथी राम जी ने फिर चलना शुरू किया। और हमने अपना डर भगाने के लिए महावत से बात करनी शुरू की पर जब नदी के लिए उसने ऊपर से उतरना शुरू किया तब तो हमने भगवान को इतना याद किया कि बस पूछिए मत। और जैसे ही उसने नदी मे पैर रक्खा तो हम सामने देखने की बजाय नदी मे देख रहे थे जिसमे पानी इतना साफ़ था कि नीचे के बड़े-बड़े पत्थर दिखाई दे रहे थे । और हमें लग रहा था की अगर गजराज जी का पैर जरा भी इधर-उधर हुआ तो हम लोग सीधे पानी मे । :)
जैसे तैसे राम-राम करते नदी पार किया तो sea bed पर छोटे-बड़े पत्थरों पर हाथी जी ने चलना शुरू किया । अभी २ कदम चला कि रुक गया। और सूंड उठाकर बड़ी जोर से आवाज करी अरे मतलब चिंघाड़ा । तो महावत से पूछने पर कि क्या हुआ वो बोला कि आज अकेले जा रहा है जबकि कल २ हाथी गए थे इसलिए ये रुक रहा है। खैर हाथी ने फिर चलना शुरू किया और हम भगवान् को याद करते रहे और तकरीबन १ घंटे के बाद और २ और छोटी-छोटी क्रीक सी पार करते हुए hornbill कैंप जाने वाले पहाड़ और जंगल तक पहुंचे। और यहां पहुँचते ही गजराज जी ने धड़ाधड़ पेड़ों से डाल तोड़-तोड़ कर खानी शुरू कर दी बिलकुल किसी छोटे शैतान बच्चे की तरह । :) फोटो थोड़ी हिली हुई है क्यूंकि हाथी राम जी इतनी जोर-जोर से डालियाँ जो तोड़ रहे थे। :)
और हाथी जी का ये अंदाज देख कर तो हम और घबरा गए क्यूंकि आगे तो ऊँचे पहाड़ पर सिर्फ एक पैर रखने की जगह थी जहाँ से हम लोगों को जाना था और कैंप तक जाने मे २-३ घंटे और लगने थे तो हम लोगों ने थोड़ी दूर जाकर वापिस लौटना ही ठीक समझा। महावत से पूछने पर बोलता कि hornbill बहुत अन्दर जंगल मे दिखती है।
जब हम लोग जंगल से वापिस आ रहे थे तो देखा ४-५- औरतें एक-दूसरे का हाथ पकड़कर संभल-संभल कर नदी पार कर रही थी । वैसे जिस नदी को क्रॉस करने के लिए हम लोगों ने हाथी कि सवारी की उसे लोकल लोग ऐसे ही पार कर जाते है।वैसे ये बीच मे क्रीक जैसा पड़ता है । पर फिर भी गहरा तो होता ही है। इन औरतों के कमर से ऊपर तक पानी था।
खैर लौटते हुए भी हाथी जी ने कम नहीं डराया । जाने मे तो फिर भी थोड़े कम गहरे पानी के रास्ते गए थे लौटने मे जब हाथी नदी मे उतरा तो उसके कान तक पानी था और जब नदी से बाहर आया तो एक लकड़ी के मोटे से log पर एक पैर और दूसरा पैर नदी मे और हमारी जान हलक मे। किसी तरह वहां से चले तो ऊपर चढ़ने मे बड़ा सोच-सोच कर और रुक-रुक कर चढ़ा । शायद कुछ calculate करता होगा। :)
जैसे ही हम गेस्ट हाउस पहुंचे हमने फटाफट हाथी से उतर कर सबसे पहले गजराज जी को औरभगवान् को धन्यवाद कहा और महावत को हाथी को खिलाने के लिए १०० रूपये दिए और महावत और उसके साथी को भी रूपये दिए।
और वैसे भी इतनी मेहनत और मशक्कत के बाद भी ना तो hornbill और ना ही कोई और जानवर हम लोगों को दिखा। पर हाँ हाथी की सवारी जरुर कर ली। :)
अरुणाचल प्रदेश की वादियों से
Tuesday, May 24, 2011
Monday, May 16, 2011
नाम्दाफा नॅशनल पार्क
नाम्दाफा इको-कल्चरल फेस्टिवल देखने के बाद सोचा गया कि जब इतनी दूर आये है तो नाम्दाफा नॅशनल पार्क भी देख लेना चाहिए क्यूंकि नाम्दाफा म्याऊं से सिर्फ २८-३० कि.मी. की दूरी पर है। नाम्दाफा नॅशनल पार्क तक पहुँचने के ३ रास्ते है एक तो म्याऊं से दूसरा रास्ता namsai से होते हुए deban से और तीसरा रास्ता विजयनगर से गांधीग्राम होते हुए जाया जा सकता है ।
चलिए कुछ नाम्दाफा के बारे मे भी तो बता दिया जाए। नाम्दाफा अरुणाचल प्रदेश के चांगलांग डिस्ट्रिक्ट मे है। नाम्दाफा एक नदी का नाम है जो dapha -bum (dapha एक tribe के नाम का पहाड़ है और bum का मतलब है पहाड़ की छोटी) से निकलती है। और शिन्ग्पो भाषा मे nam का मतलब है पानी । नाम्दाफा को १९७२ मे wild life sanctuary घोषित किया गया था और १९८३ मे इसे नॅशनल पार्क और tigar reserve घोषित किया गया । ये दुनिया का अकेला ऐसा पार्क है जहाँ tiger,leopard,clouded leopard,और snow leopard मिलते है। और नाम्दाफा hornbill bird जो की यहां की राजकीय पक्षी है बहुत होती है।
इनके अलावा यहां तकरीबन ४-५ तरह की leech (जोंक) ३०० से भी ज्यादा तरह की तितलियाँ ,अनेकों प्रकार के insects,मछलियां,६५० प्रकार की चिड़ियाँ,और अनेकों तरह के जीव-जंतु (जैसे
सांप,बार्किंग डीयर ,हिरन,वगैरा। ) लिस्ट बहुत लम्बी है :)
सो अगले दिन सुबह ८ बजे हम लोग नाम्दाफा के लिए निकले। नाम्दाफा जाने के लिए four wheel drive वाली गाड़ियाँ ही जाती है क्यूंकि छोटी कार वगैरा जा ही नहीं सकती है क्यूंकि जैसे ही म्याऊं से बाहर आते है तो बस पथरीली और उबड़-खाबड़ सड़क शुरू हो जाती है। जो काफी दूर तक चलती है और जहाँ से ये सड़क ख़त्म होती है वहां से कच्ची सड़क शुरू हो जाती है। यानी अभी पक्की सड़क बनी नहीं है बनाई जा रही है। सारे रास्ते कहीं-कहीं पर कुछ ४-६ मजदूर काम करते हुए दिख जाते है । तो कहीं औरतें गाले (लोकल ड्रेस) बनाती दिख जाती है।
कहीं-कहीं सड़क इतनी पतली है कि एक बार मे गाड़ियाँ क्रॉस करने मे दिक्कत आती है। और सारी सड़क गीली रहती है जिसकी वजह से कीचड सा रहता है और जिसमे गाडी के फंसने का डर भी रहता है । वैसे घने जंगलों से गुजरते हुए विभिन्न तरह की चिड़ियों और पक्षियों की आवाज के साथ और नीचे बहती नदी को देखते हुए कीचड भरा रास्ता भी पार हो जाता है। :)
इस एक-डेढ़ घंटे की ड्राइव के बाद जब गेस्ट हाउस पहुँचते है तो जरा जान मे जान आती है। यहां गेस्ट हाउस के अलावा कुछ टूरिस्ट हट्स और डॉरमेटरी भी है । हम लोग नाम्दाफा मे फ़ॉरेस्ट का गेस्ट हाउस है जो की बहुत ही सुन्दर है वहां ठहरे थे । और ये जगह ऐसी है कि यहां आराम से २-४ दिन रहा जा सकता है ,गेस्ट हाउस के चारों और खूबसूरत लॉन और सामने sea bed और दूर दीखते जंगल और पहाड़ । इंसान को और क्या चाहिए ।यहां पूरी तरह से प्रकृति को enjoy किया जा सकता है। क्यूंकि यहां ज्यादातर लाईट नहीं होती है इसलिए solar energy का इस्तेमाल होता है। और वहां ना तो t.v. है और ना कोई मोबाइल फ़ोन काम करते है। इसलिए पूरी तरह से अगर कोई चाहे तो आत्मचिंतन भी कर सकता है । :) पर इसमें एक खतरा भी है खुदा ना खास्ता कुछ हो जाए तो किसी को पता भी नहीं चलेगा। :(इस फोटो मे जो दाहिनी ओर पहाड़ दिख रहा है वहीँ से hornbill कैंप जाते है। वैसे ये फोटो काफी ज़ूम करके ली है।
जब हम लोग गेस्ट हाउस के गेट पर पहुंचे तो देखा २ हाथियों पर सामान वगैरा लाद कर एक साहब hornbill कैंप जो की गेस्ट हाउस से ११ कि.मी. की दूरी पर है जाने को तैयार थे। उनसे पूछने पर पता चला कि वो मैसूर से hornbill पर study करने आये थे इसलिए अगले ६-७ महीने वहीँ कैंप करेंगे ।और ये पूछने पर की अभी तो मौसम ठीक है (फरवरी मे गए थे) पर बारिश मे क्या होगा । तो वो बोले की हम तो यहां ऐसे ही आ-आ कर कैंप करते रहते है।
गेस्ट हाउस मे चाय वगैरा पीकर गेस्ट हाउस के एम्प्लोई से पूछने पर कि यहां कहाँ घूमें और क्या यहां hornbill दिखती है। तो एक बोले कि अभी एक घंटे पहले यहीं पेड़ पर बैठी थी। और हमारे पूछने पर कि क्या अक्सर hornbill आती है वोबोले कि कुछ ठीक नहीं है , कभी रोज आती है तो कभी नहीं। और घूमने के लिए उन्होंने कहा कि जंगल मे आप गाडी से थोड़ी दूर घूम आइये जहाँ रास्ता ठीक है ।वहीँ गेस्ट हाउस से एक आदमी (उनका नाम ठाकुर था)को साथ लिया ताकि जंगल मे भटक ना जाए ।
ड्राइवर को गाडी लाने के लिए बोल कर हम लोग गेस्ट हाउस से थोड़ी दूर पैदल चले कि ५ लोग मिले जो कोलकत्ता से आये थे जो लेखकऔर फोटोग्राफर थे ,उनसे पूछने पर कि कुछ दिखा तो उन्होंने बताया कि कुछ चिड़ियाँ और लंगूर वगैरह दिखे। वो सभी लोग हाथों मे लकड़ी की लाठी पकडे हुए थे अरे भाई अगर कोई जानवर आ जाए तो उससे बचने के लिए। हम लोगों के साथ कैरी (doggi) को देखकर बोले की आप लोगों को डरने की कोई जरुरत नहीं ही क्यूंकि आपके साथ तो एक जानवर है ही सुरक्षा के लिए । :)
तब तक ड्राइवर गाडी ले आया और हम लोग गाडी से चल दिए । तकरीबन ७-८ कि.मी. जाने पर लगा कि गाडी मे बैठे-बैठे तो ना कुछ मजा आ रहा था और ना ही कुछ दिख रहा था। तो गाडी को हम लोगों ने रोका और सोचा कि अगर जंगल मे पैदल नहीं चलेंगे तो फायदा क्या आने का। और foot march शुरू किया । :)
हालाँकि जिस रास्ते से हम लोग जा रहे थे वो बिलकुल कच्चा मिटटी और कीचड का रास्ता था क्यूंकि वहां पहाड़ इतने है कि कुछ जगहों पर धूप पड़ती ही नहीं है और ओस और पानी से अधिकतर रास्ता गीला -गीला ही रहता है। ।यूँ तो ये गाडी का रास्ता था मतलब मुख्य मार्ग था जो विजयनगर की ओर जाता था। . पर उस रास्ते पर कोई भी नहीं दीखता है. ना इंसान और ना ही जानवर हाँ कुछ खूबसूरत तितलियाँ जरुर दिखती है और कहीं बांस टूटने की आवाज तो कहीं से चिड़ियों की अलग-अलग तरह की आवाजें सुनाई देती रहती है. जो आपको जंगल मे होने का एहसास दिलाती रहती है।
खैर हम लोगों ने गाड़ी से उतर कर पैदल चलना शुरू किया ।जैसे ही हम लोग चलने लगे तो थोड़ी ही दूर कीचड़ वाला रास्ता दिखा तो ड्राइवर ने फटाक से २ बम्बू काटे और हम लोगों के लिए लाठी बना दी ताकि कीचड़ पार करने मे आसानी हो। हालाँकि उस दिन मौसम खुला था यानी धूप निकली हुई थी । कैरी भी बड़े जोश मे चल रहे थे पर एक -डेढ़ घंटे चलने के बाद वही धूप थकाने वाली लगने लगी और कीचड को हर १० मिनट पर पार करते -करते बोर हो गए थे और कुछ ख़ास जानवर या पक्षी दिख भी नहीं रहा था। और फिर वापिस भी तो आना था। :)
लौटते हुए ये कुछ लोग दिखे तो ठाकुर ने बताया कि वो विजयनगर जा रहे है । और miao से ८-१० दिन लगता है विजयनगर पहुँचने मे।
वापिस लौटते हुए कैरी को झरने से पानी पिलाया और जैसे ही गाडी दिखी कैरी कूदकर उसमे बैठ गया । लौटते हुए ठाकुर से हम लोगों ने पूछ की यहां कोई जानवर दीखता भी है तो वो बोले कि हाँ जब हम लोग जंगल मे राउंड करने जाते है २०-२५ दिन के लिए तब कहीं -कहीं tigar वगैरा दिखते है। थोड़ी देर बाद हम भी गाडी मे बैठ गए और हर पेड़ पर नजार गडाते हुए की शायद कहीं कोई hornbill दिख जाए। पर हमे एक भी नहीं दिखी हाँ बस कुछ तितलियाँ और जंगली कबूतर जरुर दिखे।
शाम को वहां जल्दी अँधेरा हो जाता है और किसी जानवर के बोलने की कुछ अजीब सी आवाज आ रही थी जिसे सुनकर कैरी ने जोर-जोर से भौकना शुरू कर दिया। और बस इधर से कैरी बोलता उधर से वो जानवर। बाद मे हम लोगों ने देखा की कुछ लोग torch लेकर गेस्ट हाउस के आस-पास जंगल मे कुछ देख रहे है तो उत्सुकता वश हम लोग भी torch लेकर निकले पर कुछ दिखा नहीं पर वो आवाज काफी पास से सुनाई देने लगी थी। लौटकर गेस्ट हाउस वाले ने बताया की वो बार्किंग डीयर की आवाज है।
सारी रात जानवरों की आवाजें ही आती रही । रात मे भी कई बार बाहर अँधेरे मे देखने की कोशिश की क्यूंकि वहां फ्लाईंग इस्क्विरल भी दिखती है । पर हमें कुछ भी नहीं दिखा। खैर अगले दिन का कार्यक्रम बनाया कि हाथी से जंगल मे जाया जाये ताकि कुछ तो दिखे।:)
तो हाथी की सवारी अगली पोस्ट मे। :)
चलिए कुछ नाम्दाफा के बारे मे भी तो बता दिया जाए। नाम्दाफा अरुणाचल प्रदेश के चांगलांग डिस्ट्रिक्ट मे है। नाम्दाफा एक नदी का नाम है जो dapha -bum (dapha एक tribe के नाम का पहाड़ है और bum का मतलब है पहाड़ की छोटी) से निकलती है। और शिन्ग्पो भाषा मे nam का मतलब है पानी । नाम्दाफा को १९७२ मे wild life sanctuary घोषित किया गया था और १९८३ मे इसे नॅशनल पार्क और tigar reserve घोषित किया गया । ये दुनिया का अकेला ऐसा पार्क है जहाँ tiger,leopard,clouded leopard,और snow leopard मिलते है। और नाम्दाफा hornbill bird जो की यहां की राजकीय पक्षी है बहुत होती है।
इनके अलावा यहां तकरीबन ४-५ तरह की leech (जोंक) ३०० से भी ज्यादा तरह की तितलियाँ ,अनेकों प्रकार के insects,मछलियां,६५० प्रकार की चिड़ियाँ,और अनेकों तरह के जीव-जंतु (जैसे
सांप,बार्किंग डीयर ,हिरन,वगैरा। ) लिस्ट बहुत लम्बी है :)
सो अगले दिन सुबह ८ बजे हम लोग नाम्दाफा के लिए निकले। नाम्दाफा जाने के लिए four wheel drive वाली गाड़ियाँ ही जाती है क्यूंकि छोटी कार वगैरा जा ही नहीं सकती है क्यूंकि जैसे ही म्याऊं से बाहर आते है तो बस पथरीली और उबड़-खाबड़ सड़क शुरू हो जाती है। जो काफी दूर तक चलती है और जहाँ से ये सड़क ख़त्म होती है वहां से कच्ची सड़क शुरू हो जाती है। यानी अभी पक्की सड़क बनी नहीं है बनाई जा रही है। सारे रास्ते कहीं-कहीं पर कुछ ४-६ मजदूर काम करते हुए दिख जाते है । तो कहीं औरतें गाले (लोकल ड्रेस) बनाती दिख जाती है।
कहीं-कहीं सड़क इतनी पतली है कि एक बार मे गाड़ियाँ क्रॉस करने मे दिक्कत आती है। और सारी सड़क गीली रहती है जिसकी वजह से कीचड सा रहता है और जिसमे गाडी के फंसने का डर भी रहता है । वैसे घने जंगलों से गुजरते हुए विभिन्न तरह की चिड़ियों और पक्षियों की आवाज के साथ और नीचे बहती नदी को देखते हुए कीचड भरा रास्ता भी पार हो जाता है। :)
इस एक-डेढ़ घंटे की ड्राइव के बाद जब गेस्ट हाउस पहुँचते है तो जरा जान मे जान आती है। यहां गेस्ट हाउस के अलावा कुछ टूरिस्ट हट्स और डॉरमेटरी भी है । हम लोग नाम्दाफा मे फ़ॉरेस्ट का गेस्ट हाउस है जो की बहुत ही सुन्दर है वहां ठहरे थे । और ये जगह ऐसी है कि यहां आराम से २-४ दिन रहा जा सकता है ,गेस्ट हाउस के चारों और खूबसूरत लॉन और सामने sea bed और दूर दीखते जंगल और पहाड़ । इंसान को और क्या चाहिए ।यहां पूरी तरह से प्रकृति को enjoy किया जा सकता है। क्यूंकि यहां ज्यादातर लाईट नहीं होती है इसलिए solar energy का इस्तेमाल होता है। और वहां ना तो t.v. है और ना कोई मोबाइल फ़ोन काम करते है। इसलिए पूरी तरह से अगर कोई चाहे तो आत्मचिंतन भी कर सकता है । :) पर इसमें एक खतरा भी है खुदा ना खास्ता कुछ हो जाए तो किसी को पता भी नहीं चलेगा। :(इस फोटो मे जो दाहिनी ओर पहाड़ दिख रहा है वहीँ से hornbill कैंप जाते है। वैसे ये फोटो काफी ज़ूम करके ली है।
जब हम लोग गेस्ट हाउस के गेट पर पहुंचे तो देखा २ हाथियों पर सामान वगैरा लाद कर एक साहब hornbill कैंप जो की गेस्ट हाउस से ११ कि.मी. की दूरी पर है जाने को तैयार थे। उनसे पूछने पर पता चला कि वो मैसूर से hornbill पर study करने आये थे इसलिए अगले ६-७ महीने वहीँ कैंप करेंगे ।और ये पूछने पर की अभी तो मौसम ठीक है (फरवरी मे गए थे) पर बारिश मे क्या होगा । तो वो बोले की हम तो यहां ऐसे ही आ-आ कर कैंप करते रहते है।
गेस्ट हाउस मे चाय वगैरा पीकर गेस्ट हाउस के एम्प्लोई से पूछने पर कि यहां कहाँ घूमें और क्या यहां hornbill दिखती है। तो एक बोले कि अभी एक घंटे पहले यहीं पेड़ पर बैठी थी। और हमारे पूछने पर कि क्या अक्सर hornbill आती है वोबोले कि कुछ ठीक नहीं है , कभी रोज आती है तो कभी नहीं। और घूमने के लिए उन्होंने कहा कि जंगल मे आप गाडी से थोड़ी दूर घूम आइये जहाँ रास्ता ठीक है ।वहीँ गेस्ट हाउस से एक आदमी (उनका नाम ठाकुर था)को साथ लिया ताकि जंगल मे भटक ना जाए ।
ड्राइवर को गाडी लाने के लिए बोल कर हम लोग गेस्ट हाउस से थोड़ी दूर पैदल चले कि ५ लोग मिले जो कोलकत्ता से आये थे जो लेखकऔर फोटोग्राफर थे ,उनसे पूछने पर कि कुछ दिखा तो उन्होंने बताया कि कुछ चिड़ियाँ और लंगूर वगैरह दिखे। वो सभी लोग हाथों मे लकड़ी की लाठी पकडे हुए थे अरे भाई अगर कोई जानवर आ जाए तो उससे बचने के लिए। हम लोगों के साथ कैरी (doggi) को देखकर बोले की आप लोगों को डरने की कोई जरुरत नहीं ही क्यूंकि आपके साथ तो एक जानवर है ही सुरक्षा के लिए । :)
तब तक ड्राइवर गाडी ले आया और हम लोग गाडी से चल दिए । तकरीबन ७-८ कि.मी. जाने पर लगा कि गाडी मे बैठे-बैठे तो ना कुछ मजा आ रहा था और ना ही कुछ दिख रहा था। तो गाडी को हम लोगों ने रोका और सोचा कि अगर जंगल मे पैदल नहीं चलेंगे तो फायदा क्या आने का। और foot march शुरू किया । :)
हालाँकि जिस रास्ते से हम लोग जा रहे थे वो बिलकुल कच्चा मिटटी और कीचड का रास्ता था क्यूंकि वहां पहाड़ इतने है कि कुछ जगहों पर धूप पड़ती ही नहीं है और ओस और पानी से अधिकतर रास्ता गीला -गीला ही रहता है। ।यूँ तो ये गाडी का रास्ता था मतलब मुख्य मार्ग था जो विजयनगर की ओर जाता था। . पर उस रास्ते पर कोई भी नहीं दीखता है. ना इंसान और ना ही जानवर हाँ कुछ खूबसूरत तितलियाँ जरुर दिखती है और कहीं बांस टूटने की आवाज तो कहीं से चिड़ियों की अलग-अलग तरह की आवाजें सुनाई देती रहती है. जो आपको जंगल मे होने का एहसास दिलाती रहती है।
खैर हम लोगों ने गाड़ी से उतर कर पैदल चलना शुरू किया ।जैसे ही हम लोग चलने लगे तो थोड़ी ही दूर कीचड़ वाला रास्ता दिखा तो ड्राइवर ने फटाक से २ बम्बू काटे और हम लोगों के लिए लाठी बना दी ताकि कीचड़ पार करने मे आसानी हो। हालाँकि उस दिन मौसम खुला था यानी धूप निकली हुई थी । कैरी भी बड़े जोश मे चल रहे थे पर एक -डेढ़ घंटे चलने के बाद वही धूप थकाने वाली लगने लगी और कीचड को हर १० मिनट पर पार करते -करते बोर हो गए थे और कुछ ख़ास जानवर या पक्षी दिख भी नहीं रहा था। और फिर वापिस भी तो आना था। :)
लौटते हुए ये कुछ लोग दिखे तो ठाकुर ने बताया कि वो विजयनगर जा रहे है । और miao से ८-१० दिन लगता है विजयनगर पहुँचने मे।
वापिस लौटते हुए कैरी को झरने से पानी पिलाया और जैसे ही गाडी दिखी कैरी कूदकर उसमे बैठ गया । लौटते हुए ठाकुर से हम लोगों ने पूछ की यहां कोई जानवर दीखता भी है तो वो बोले कि हाँ जब हम लोग जंगल मे राउंड करने जाते है २०-२५ दिन के लिए तब कहीं -कहीं tigar वगैरा दिखते है। थोड़ी देर बाद हम भी गाडी मे बैठ गए और हर पेड़ पर नजार गडाते हुए की शायद कहीं कोई hornbill दिख जाए। पर हमे एक भी नहीं दिखी हाँ बस कुछ तितलियाँ और जंगली कबूतर जरुर दिखे।
शाम को वहां जल्दी अँधेरा हो जाता है और किसी जानवर के बोलने की कुछ अजीब सी आवाज आ रही थी जिसे सुनकर कैरी ने जोर-जोर से भौकना शुरू कर दिया। और बस इधर से कैरी बोलता उधर से वो जानवर। बाद मे हम लोगों ने देखा की कुछ लोग torch लेकर गेस्ट हाउस के आस-पास जंगल मे कुछ देख रहे है तो उत्सुकता वश हम लोग भी torch लेकर निकले पर कुछ दिखा नहीं पर वो आवाज काफी पास से सुनाई देने लगी थी। लौटकर गेस्ट हाउस वाले ने बताया की वो बार्किंग डीयर की आवाज है।
सारी रात जानवरों की आवाजें ही आती रही । रात मे भी कई बार बाहर अँधेरे मे देखने की कोशिश की क्यूंकि वहां फ्लाईंग इस्क्विरल भी दिखती है । पर हमें कुछ भी नहीं दिखा। खैर अगले दिन का कार्यक्रम बनाया कि हाथी से जंगल मे जाया जाये ताकि कुछ तो दिखे।:)
तो हाथी की सवारी अगली पोस्ट मे। :)
Thursday, May 12, 2011
गेम्स और स्पोर्ट्स (N.E.C.F.2011 )
पिछली पोस्ट फैशन शो से आगे इस बार यहां के लोकल गेम्स के बारे मे है ये पोस्ट ।
अगले दिन सुबह हम लोगों ने इनके ट्रेडिशनल गेम्स को भी देखने की सोची और बस पहुँच गए । वहां पहुंचे तो देखा कि तीर अन्दाजी का competition चल रहा था जिसमे हर tribe के २ लोग निशाने पर तीर मार रहे थे। इसमें कुछ दूरी पर टीन का एक स्टैंड सा बना कर उसमे कागज़ को कार्ड बोर्ड पर चिपकाया था और उसमे तीन सर्किल बनाए थे । सबसे छोटे सर्किल को लाल रंग से रंगा था और सभी को तीर इस लाल रंग वाले सर्किल पर मारना था । हर तीर अंदाज को ३ चांस मिलते थे।इस खेल मे सावधानी बरतनी पड़ती है की कोई टीन के पीछे की तरफ ना हो क्यूंकि कई बार निशाना चूकने पर तीर किसी को लग भी सकता है। और इस तीर अन्दाजी के competition मे खामप्ती,निशि,युबिन,वगैरा भाग ले रहे थे। और इस तीर अन्दाजी के competition को युबिन pastor ने जीता था।
सुबह ५ बजे से मैराथन दौड़ भी हुई थी जिसमे भी युबिन tribe के लोग ही जीते थे । आप को जानकार आश्चर्य होगा की युबिन अरुणाचल के विजयनगर डिस्ट्रिक्ट मे रहते है जहाँ पिछले १-२ साल से सड़क बनाने का कार्य शुरू हुआ है पर अभी पूरा नहीं हुआ है और अभी तक ये लोग पैदल ही एक जगह से दूसरी जगह जाते है। और विजयनगर से miao शायद ८० या १०० की-मी है ।
जैसे ही ये competition ख़त्म हुआ तो वहीँ दूसरा competition शुरू हो गया जिसमे पंगवा tribe के ही २ ग्रुप ने भाग लिया । इस खेल का नाम तो हम भूल गए है (क्यूंकि थोड़े कठिन नाम होते है )पर इसमें ये लोग जमीन पर कुछ सपाट पत्थर को कुछ दूरी पर खड़ा करके एक लाईन सी बनाते है और खिलाड़ी पैर की ऊँगली पर एक पत्थर रख कर उछाल कर इन पत्थरों से बनी लाईन को गिराते है।और आखिरी पत्थर को हाथ से उछाल कर बिलकुल जैसे कंचे खेलते है उस तरह से गिराते है। जो टीम जितना जल्दी पत्थर गिराती है वो जीत टीम जाती है।
इसके गेम के ख़त्म होते ही गोरखा लोगों का गेम शुरू हुआ ,बिलकुल गिल्ली डंडे जैसा । बस इसमें फर्क ये था की इसमें गिल्ली कैच करने की बजाये दूसरी टीम के खिलाड़ी डंडे से ही उछालते थे । इसमें भी २ गोरखा टीम ने भाग लिया।
और इसके बाद बहुत ही मजेदार खेल हुआ जिसमे खिलाड़ी बम्बू पर खड़े होकर एक-दूसरे को बम्बू से गिराने की कोशिश करते है। इस खेल मे भी २ टीमें खेलती है और जिस टीम के सभी खिलाड़ी बम्बू से गिर जाते है वो टीम हार जाती है। इस पूरी बम्बू फाईट के दौरान खिलाड़ियों को जोश और उत्साह देने और खेल का रोमांच बनाए रखने के लिए एक आदमी ढोल बजाता रहता है। इसमें खिलाड़ियों की दोनों टीमें सिर पर अलग तरह का हेड गियर पहनती है। ताकि दोनों टीमों को अलग से पहचाना जा सके।
इन खेलों के अलावा बम्बू बोट रेस भी हुई । और इसे देखने के लिए हम लोग फेस्टिवल साईट से थोड़ी दूर उबड़-खाबड़ रास्तों से और रिवर बेड जिसमे पत्थरों से भरे रास्ते से होते हुए नदी के किनारे पहुंचे । पर हम लोग जहाँ खड़े थे वहां पहुंचकर समझ नहीं आया की हम लोग तो इतने ऊपर है तो बम्बू बोट रेस कैसे होगी। पूछने पर पता चला कि नदी के दूसरे छोर से ये बोट रेस होनी थी। इस रेस मे १० टीमों को हिस्सा लेना था पर सिर्फ ६ टीमें ही आई ।
खैर हर बोट मे २ खिलाड़ी थे और ये बोट ८-९ बम्बू को रस्सी से बांधकर बनाई गयी थे और इसे चप्पू नहीं बल्कि बम्बू से चलाना भी था। पहले राउंड मे ४ टीमों ने भाग लिए। और इसके लिए इन चारों टीमों को इस छोर से उस छोर तक जाना था । और चूँकि पानी का बहाव उल्टा था तो इन लोगों को अपनी बम्बू बोट ले जाने मे काफी मशक्कत करनी पड़ी।
एक-दो टीम की बोट तो पानी के बहाव के साथ ही बह चली तो एक टीम के खिलाड़ी अपनी नाव को कंट्रोल करने के चक्कर मे पानी मे ही गिर पड़े थे। खैर काफी जद्दो-जहत के बाद पहली ४ टीम दूसरे किनारे पहुंची और रेस के लिए तैयार हुई।
और फिर लाइफ बोट मे फेस्टिवल की कमेटी के चार लोग नदी के उस पार गए । और जब सभी टीम वहां पहुँच गयी तो उन सबको rules बताये गए । और फिर जैसे ही भोपूं बजाया गया चारों टीम तेजी से अपनी-अपनी बम्बू बोट को चलाते हुए किनारे के तरफ आने लगे जिसमे ३ बोट तो पानी के बहाव से आपस मे टकराती हुई चलने लगी और चौथी टीम की बोट आराम और अकलमंदी से जल्दी-जल्दी किनारे की तरफ आने लगी। और जीत गयी।
इन सभी खेलों की ख़ास बात थी सभी खिलाड़ियों को अपनी पारम्परिक वेशभूषा पहन कर ही खेल मे भाग लेना था।
यूँ तो यहां के लोकल खेल देखने का हमारा ये पहला अनुभव था इसलिए काफी मजा आया था।
वैसे बम्बू रेस का वीडियो हमने you tube पर लगाया है। :)
अगले दिन सुबह हम लोगों ने इनके ट्रेडिशनल गेम्स को भी देखने की सोची और बस पहुँच गए । वहां पहुंचे तो देखा कि तीर अन्दाजी का competition चल रहा था जिसमे हर tribe के २ लोग निशाने पर तीर मार रहे थे। इसमें कुछ दूरी पर टीन का एक स्टैंड सा बना कर उसमे कागज़ को कार्ड बोर्ड पर चिपकाया था और उसमे तीन सर्किल बनाए थे । सबसे छोटे सर्किल को लाल रंग से रंगा था और सभी को तीर इस लाल रंग वाले सर्किल पर मारना था । हर तीर अंदाज को ३ चांस मिलते थे।इस खेल मे सावधानी बरतनी पड़ती है की कोई टीन के पीछे की तरफ ना हो क्यूंकि कई बार निशाना चूकने पर तीर किसी को लग भी सकता है। और इस तीर अन्दाजी के competition मे खामप्ती,निशि,युबिन,वगैरा भाग ले रहे थे। और इस तीर अन्दाजी के competition को युबिन pastor ने जीता था।
सुबह ५ बजे से मैराथन दौड़ भी हुई थी जिसमे भी युबिन tribe के लोग ही जीते थे । आप को जानकार आश्चर्य होगा की युबिन अरुणाचल के विजयनगर डिस्ट्रिक्ट मे रहते है जहाँ पिछले १-२ साल से सड़क बनाने का कार्य शुरू हुआ है पर अभी पूरा नहीं हुआ है और अभी तक ये लोग पैदल ही एक जगह से दूसरी जगह जाते है। और विजयनगर से miao शायद ८० या १०० की-मी है ।
जैसे ही ये competition ख़त्म हुआ तो वहीँ दूसरा competition शुरू हो गया जिसमे पंगवा tribe के ही २ ग्रुप ने भाग लिया । इस खेल का नाम तो हम भूल गए है (क्यूंकि थोड़े कठिन नाम होते है )पर इसमें ये लोग जमीन पर कुछ सपाट पत्थर को कुछ दूरी पर खड़ा करके एक लाईन सी बनाते है और खिलाड़ी पैर की ऊँगली पर एक पत्थर रख कर उछाल कर इन पत्थरों से बनी लाईन को गिराते है।और आखिरी पत्थर को हाथ से उछाल कर बिलकुल जैसे कंचे खेलते है उस तरह से गिराते है। जो टीम जितना जल्दी पत्थर गिराती है वो जीत टीम जाती है।
इसके गेम के ख़त्म होते ही गोरखा लोगों का गेम शुरू हुआ ,बिलकुल गिल्ली डंडे जैसा । बस इसमें फर्क ये था की इसमें गिल्ली कैच करने की बजाये दूसरी टीम के खिलाड़ी डंडे से ही उछालते थे । इसमें भी २ गोरखा टीम ने भाग लिया।
और इसके बाद बहुत ही मजेदार खेल हुआ जिसमे खिलाड़ी बम्बू पर खड़े होकर एक-दूसरे को बम्बू से गिराने की कोशिश करते है। इस खेल मे भी २ टीमें खेलती है और जिस टीम के सभी खिलाड़ी बम्बू से गिर जाते है वो टीम हार जाती है। इस पूरी बम्बू फाईट के दौरान खिलाड़ियों को जोश और उत्साह देने और खेल का रोमांच बनाए रखने के लिए एक आदमी ढोल बजाता रहता है। इसमें खिलाड़ियों की दोनों टीमें सिर पर अलग तरह का हेड गियर पहनती है। ताकि दोनों टीमों को अलग से पहचाना जा सके।
इन खेलों के अलावा बम्बू बोट रेस भी हुई । और इसे देखने के लिए हम लोग फेस्टिवल साईट से थोड़ी दूर उबड़-खाबड़ रास्तों से और रिवर बेड जिसमे पत्थरों से भरे रास्ते से होते हुए नदी के किनारे पहुंचे । पर हम लोग जहाँ खड़े थे वहां पहुंचकर समझ नहीं आया की हम लोग तो इतने ऊपर है तो बम्बू बोट रेस कैसे होगी। पूछने पर पता चला कि नदी के दूसरे छोर से ये बोट रेस होनी थी। इस रेस मे १० टीमों को हिस्सा लेना था पर सिर्फ ६ टीमें ही आई ।
खैर हर बोट मे २ खिलाड़ी थे और ये बोट ८-९ बम्बू को रस्सी से बांधकर बनाई गयी थे और इसे चप्पू नहीं बल्कि बम्बू से चलाना भी था। पहले राउंड मे ४ टीमों ने भाग लिए। और इसके लिए इन चारों टीमों को इस छोर से उस छोर तक जाना था । और चूँकि पानी का बहाव उल्टा था तो इन लोगों को अपनी बम्बू बोट ले जाने मे काफी मशक्कत करनी पड़ी।
एक-दो टीम की बोट तो पानी के बहाव के साथ ही बह चली तो एक टीम के खिलाड़ी अपनी नाव को कंट्रोल करने के चक्कर मे पानी मे ही गिर पड़े थे। खैर काफी जद्दो-जहत के बाद पहली ४ टीम दूसरे किनारे पहुंची और रेस के लिए तैयार हुई।
और फिर लाइफ बोट मे फेस्टिवल की कमेटी के चार लोग नदी के उस पार गए । और जब सभी टीम वहां पहुँच गयी तो उन सबको rules बताये गए । और फिर जैसे ही भोपूं बजाया गया चारों टीम तेजी से अपनी-अपनी बम्बू बोट को चलाते हुए किनारे के तरफ आने लगे जिसमे ३ बोट तो पानी के बहाव से आपस मे टकराती हुई चलने लगी और चौथी टीम की बोट आराम और अकलमंदी से जल्दी-जल्दी किनारे की तरफ आने लगी। और जीत गयी।
इन सभी खेलों की ख़ास बात थी सभी खिलाड़ियों को अपनी पारम्परिक वेशभूषा पहन कर ही खेल मे भाग लेना था।
यूँ तो यहां के लोकल खेल देखने का हमारा ये पहला अनुभव था इसलिए काफी मजा आया था।
वैसे बम्बू रेस का वीडियो हमने you tube पर लगाया है। :)
Monday, May 9, 2011
अरुणाचल प्रदेश के मुख्य मंत्री का निधन
अरुणाचल प्रदेश के मुख्य मंत्री दोरजी खंडू का हेलीकाप्टर ३० अप्रैल को तवांग से ईटानगर के लिए चला पर ईटानगर नहीं पहुंचा और तवांग से कुछ ही दूरी पर दुर्घटना ग्रस्त हो गया। और इसमें मुख्यमंत्री के साथ ४ अन्य लोगों की मृत्यु हो गयी। जिसमे खंडू जी का शरीर जला नहीं था जबकि दोनों पायलट और उनके पी.एस.ओ. बिलकुल जले हुए थे और जो महिला थी वो भी जली हुई थी । जिस वजह से अनुमान लगाया जा रहा है कि या तो पायलेट ने उन्हें कूदने के लिए कहा या उनके पी.एस.ओ.ने उन्हें नीचे धकेला ताकि वो बच जाए पर चूँकि उन्हें सर मे चोट लगी इस वजह से वो बच नहीं पाए।
मुख्य मंत्री जी के साथ-साथ जो दोनों पायलेट की मृत्यु हुई वो भी बहुत दुखदायी है क्यूंकि कई बार पायलेट कि गलती ना होते हुए भी उन्हें अपनी जान गवानी पड़ती है । कई बार पायलेट के ऊपर दबाव होता है तो कभी मौसम की वजह से क्रेश होता है।
हमें याद है जब हम लोग तवांग हेलीकाप्टर से गए थे और उतरने पर पायलेट को धन्यवाद दिया था तो उन्होंने ने कहा कि हमें नहीं भगवान को धन्यवाद दीजिये।
कितने दुःख की बात है कि तकरीबन ३०००० से ज्यादा आर्मी,इसरो,सुखोई,और चीता हेलीकाप्टर मुख्य मंत्री को खोज पाने मे असमर्थ रहे। और जिस तरफ उन्हें ढूँढने कि कोशिश की जा रही थी वो उससे बिलकुल दूसरी तरफ मिले। सबकी यही दलील है कि भूटान की तरफ उनका chopper जाने की सम्भावना और इसरो की सेट लाईट पिक्चर के वजह से सिर्फ भूटान की तरफ ही उन्हें ढूँढा जा रहा था । कई बार मन मे सवाल उठता है कि जब चीता या सुखोई तवांग से उड़े होंगे तो क्या उन्हें ऊपर से पूरा एरिया नहीं दिखता होगा। या क्या चीन से सटे बार्डर की तरफ देखने की जरुरत क्यूँ नहीं हुई।
तवांग का एरिया काफी दुर्गम सा है और चूँकि उस इलाके मे अक्सर snow fall होता रहता है और काफी ऊंचाई पर स्थित होने के कारण वहां अक्सर ऑक्सीजन की कमी भी हो जाती है। वैसे तवांग मे आर्मी का काफी बड़ा इसटैबलिशमेंट है। क्यूंकि तवांग के एक तरफ भूटान तो दूसरी चीन है।
जब दोरजी खंडू जी का हेलीकाप्टर लापता हुआ तो कुछ घंटे बाद जब भूटान से उनके मिलने की खबर आई तो यहां सभी ने राहत की सांस ली थी पर जब अगले २-३ घंटे मे वो ईटानगर नहीं पहुंचे तब सभी को चिंता होने लगी थी । और फिर अगले ५ दिन तक बस अलग-अलग ख़बरें ही आती रही और आखिरी मे ५ मई को हेलीकाप्टर का मलबा मिलने और उसमे सवार सभी लोगों की मृत्यु की खबर आई।
बेहद अफ़सोस की बात है कि हमारे देश के इतने सारे न्यूज़ चैनल होने के बाद भी इस खबर को कि एक राज्य के मुख्यमंत्री हेलीकाप्टर समेत लापता थे ज्यादा तवजोह नहीं दी गयी। बल्कि ओसामा बिन लादेन के अमेरिका द्वारा मारे जाने की खबर को दिखाया जाता रहा। और आज तक दिखाया जा रहा है। और क्यूँ ना हो आखिर दोरजी खंडू जी की खबर से कोई टी.आर.पी थोड़ी बढती इन चैनेल्स की।
अरुणाचल मे खंडू जी को laughing buddha कहा जाता था क्यूंकि वो हमेशा ही हँसते-मुस्कुराते रहते थे। और ये हमने खुद भी देखा है क्यूंकि यहां ज्यादातर function मे वो मुख्य अथिति होते थे।
अब १० मई को उनका तवांग मे बुद्ध धर्म के अनुसार अंतिम संस्कार किया जाएगा। क्यूंकि वो मोनपा tribe के थे । मोनपा मे अंतिम संस्कार दो तरह से किया जाता है ,एक जिसमे शरीर के १०८ टुकड़े करके नदी मे बहा दिया जाता है और दूसरे मे किसी पहाड़ पर मृतक के शरीर को रख दिया जाता है। और ये सब मोनेसट्री के लामा मरने वाले के अच्छे-बुरे कर्मों के आधार पर तय करते है । वैसे खंडू जी इस प्रथा के खिलाफ थे कि शरीर के टुकड़े नदी मे बहाए किये जाए । उनकी इच्छा थी कि उन्हें या तो दफनाया जाए या फिर हिन्दू रीति से अग्नि को समर्पित कर दिया जाए।
खैर उनके परिवार वालों ने उनका अंतिम संस्कार बुद्ध धर्म के अनुसार करने का निर्णय लिया है। बस भगवान से प्रार्थना है कि उनकी आत्मा को शांति दे।
मुख्य मंत्री जी के साथ-साथ जो दोनों पायलेट की मृत्यु हुई वो भी बहुत दुखदायी है क्यूंकि कई बार पायलेट कि गलती ना होते हुए भी उन्हें अपनी जान गवानी पड़ती है । कई बार पायलेट के ऊपर दबाव होता है तो कभी मौसम की वजह से क्रेश होता है।
हमें याद है जब हम लोग तवांग हेलीकाप्टर से गए थे और उतरने पर पायलेट को धन्यवाद दिया था तो उन्होंने ने कहा कि हमें नहीं भगवान को धन्यवाद दीजिये।
कितने दुःख की बात है कि तकरीबन ३०००० से ज्यादा आर्मी,इसरो,सुखोई,और चीता हेलीकाप्टर मुख्य मंत्री को खोज पाने मे असमर्थ रहे। और जिस तरफ उन्हें ढूँढने कि कोशिश की जा रही थी वो उससे बिलकुल दूसरी तरफ मिले। सबकी यही दलील है कि भूटान की तरफ उनका chopper जाने की सम्भावना और इसरो की सेट लाईट पिक्चर के वजह से सिर्फ भूटान की तरफ ही उन्हें ढूँढा जा रहा था । कई बार मन मे सवाल उठता है कि जब चीता या सुखोई तवांग से उड़े होंगे तो क्या उन्हें ऊपर से पूरा एरिया नहीं दिखता होगा। या क्या चीन से सटे बार्डर की तरफ देखने की जरुरत क्यूँ नहीं हुई।
तवांग का एरिया काफी दुर्गम सा है और चूँकि उस इलाके मे अक्सर snow fall होता रहता है और काफी ऊंचाई पर स्थित होने के कारण वहां अक्सर ऑक्सीजन की कमी भी हो जाती है। वैसे तवांग मे आर्मी का काफी बड़ा इसटैबलिशमेंट है। क्यूंकि तवांग के एक तरफ भूटान तो दूसरी चीन है।
जब दोरजी खंडू जी का हेलीकाप्टर लापता हुआ तो कुछ घंटे बाद जब भूटान से उनके मिलने की खबर आई तो यहां सभी ने राहत की सांस ली थी पर जब अगले २-३ घंटे मे वो ईटानगर नहीं पहुंचे तब सभी को चिंता होने लगी थी । और फिर अगले ५ दिन तक बस अलग-अलग ख़बरें ही आती रही और आखिरी मे ५ मई को हेलीकाप्टर का मलबा मिलने और उसमे सवार सभी लोगों की मृत्यु की खबर आई।
बेहद अफ़सोस की बात है कि हमारे देश के इतने सारे न्यूज़ चैनल होने के बाद भी इस खबर को कि एक राज्य के मुख्यमंत्री हेलीकाप्टर समेत लापता थे ज्यादा तवजोह नहीं दी गयी। बल्कि ओसामा बिन लादेन के अमेरिका द्वारा मारे जाने की खबर को दिखाया जाता रहा। और आज तक दिखाया जा रहा है। और क्यूँ ना हो आखिर दोरजी खंडू जी की खबर से कोई टी.आर.पी थोड़ी बढती इन चैनेल्स की।
अरुणाचल मे खंडू जी को laughing buddha कहा जाता था क्यूंकि वो हमेशा ही हँसते-मुस्कुराते रहते थे। और ये हमने खुद भी देखा है क्यूंकि यहां ज्यादातर function मे वो मुख्य अथिति होते थे।
अब १० मई को उनका तवांग मे बुद्ध धर्म के अनुसार अंतिम संस्कार किया जाएगा। क्यूंकि वो मोनपा tribe के थे । मोनपा मे अंतिम संस्कार दो तरह से किया जाता है ,एक जिसमे शरीर के १०८ टुकड़े करके नदी मे बहा दिया जाता है और दूसरे मे किसी पहाड़ पर मृतक के शरीर को रख दिया जाता है। और ये सब मोनेसट्री के लामा मरने वाले के अच्छे-बुरे कर्मों के आधार पर तय करते है । वैसे खंडू जी इस प्रथा के खिलाफ थे कि शरीर के टुकड़े नदी मे बहाए किये जाए । उनकी इच्छा थी कि उन्हें या तो दफनाया जाए या फिर हिन्दू रीति से अग्नि को समर्पित कर दिया जाए।
खैर उनके परिवार वालों ने उनका अंतिम संस्कार बुद्ध धर्म के अनुसार करने का निर्णय लिया है। बस भगवान से प्रार्थना है कि उनकी आत्मा को शांति दे।
Saturday, April 30, 2011
नाम्दाफा इको-कल्चरल फेस्टिवल फैशन शो
उदघाटन समारोह के बाद शाम को हम लोग एक बार फिर से फेस्टिवल ग्राउंड पर गए जहाँ ६ बजे से फैशन शो होना था। इस फेस्टिवल मे २ दिन और २ तरह का फैशन शो हुआ । पहले दिन पारंपरिक (traditional ) और दूसरे दिन आधुनिक(modern) । इस फैशन शो की खासियत ये थी की एक जगह एक साथ इतनी सारी tribes की पारंपरिक वेशभूषा को देखना इससे अच्छी भला और क्या बात हो सकती थी इस फैशन शो की। ये युबिन tribeहै ।
और फैशन शो मे भी ना केवल यहां की tribes बल्कि यहां रहने वाले आसामी,गोरखा,आदिवासी आदि ने भी इसमें हिस्सा लिया।
फैशन शो देखने की उत्सुकता ज्यादा थी क्यूंकि दिल्ली मे तो फैशन शो देखे है पर यहां अरुणाचल मे ये पहला मौका था जहाँ traditional के साथ-साथ modern फैशन शो देखने को मिल रहा था। :) खैर हम लोग तो ६ बजे पहुँच गए पर फैशन शो ७ बजे शुरू हुआ । उससे पहले सोलो डांस और ग्रुप डांस वगैरा होते रहे थे। और सभी ने बहुत ही अच्छा perform किया था।
खैर एक घंटे के इस डांस कार्यक्रम के बाद फैशन शो शुरू हुआ । और चूँकि पहले दिन पारंपरिक( traditional) फैशन शो था तो चांगलांग मे रहने वाली सभी tribes ने अपनी पारंपरिक वेशभूषा मे ये शो किया । और हर tribe के ट्रेडिशनल ड्रेस और इस शो को करने वाले models सभी बहुत traditional थे।
इस ट्रेडिशनल फैशन शो मे चांगलांग मे रहने वाली तकरीबन १७ tribes की पारंपरिक वेशभूषा देखने को मिली।जहाँ हर tribe की लड़कियों ने अलग-अलग तरह के गाले और ज्यूलरी पहनी थी वहीँ लड़कों ने अलग-अलग तरह की जैकट और कुछ ने बहुत ही अलग तरह के हेडगियर पहने थे। सभी की ड्रेस इतनी कलरफुल और आकर्षक थी कि बस क्या कहें।ये तागिन tribe है।
traditional फैशन शो मे म्यूजिक कुछ बहुत ही अलग सा पर बहुत ही अच्छा थोडा क्लासिकल था और इस शो को बहुत ही अच्छा कोरियोग्राफ किया गया था। पहले traditional फैशन शो को देखने के बाद modern फैशन शो देखने का भी तै हुआ। अरे भाई क्यूंकि traditional फैशन शो देख कर बहुत मजा जो आया था। और एक उत्सुकता भी थी की इनका modern फैशन शो कैसा होगा।
डेढ़ घंटे चले इस फैशन शो को देखने के बाद हम लोग वापिस लौट आये। और ये तय हुआ कि अगले दिन शाम को modern फैशन शो भी देखा जाएगा।
तो अगले दिन शाम को हम लोग फिर से फैशन शो देखने के लिए गए पर पहले दिन के अनुभव की वजह से थोडा देरी से गए पर माने ७ बजे गए पर इस दिन भी फैशन शो एक घंटे देरी से शुरू हुआ। और जैसे ही फैशन शो शुरू हुआ तो बस देखते ही बनता था। modern फैशन शो मे चांगलांग की tribes के जो traditional कपडे होते है उन्हें इस ख़ूबसूरती से modern look दिया गया था कि देखते ही बनता था।
जिन कपड़ों से लोग गाले (wrap around) बनाते है जो कि इनकी traditional ड्रेस है उन्ही को बहुत ही ख़ूबसूरती से अलग-अलग तरह की dresses मे बनाया गया था। जो कि एक बहुत ही अच्छा प्रयास था।
modern फैशन शो का म्यूजिक traditional से बिलकुल ही अलग था। जिस तरह कपडे और dresses अलग थे उसी तरह म्यूजिक भी अलग था। इस दिन पूरे शो के दौरान मइय्या - मइय्या गाना बजता रहा था जो इस शो के लिए बिलकुल परफेक्ट था। :)
और इस शो को भी बहुत ही अच्छा कोरियोग्राफ किया गया था। हाँ इस दिन models थोड़ी सी consious जरुर लग रही थी पर फिर भी उन लोगों ने इसे अच्छे से मैनेज किया। traditional के मुकाबले modern फैशन शो छोटा जरुर था पर अच्छा था।
और फैशन शो मे भी ना केवल यहां की tribes बल्कि यहां रहने वाले आसामी,गोरखा,आदिवासी आदि ने भी इसमें हिस्सा लिया।
फैशन शो देखने की उत्सुकता ज्यादा थी क्यूंकि दिल्ली मे तो फैशन शो देखे है पर यहां अरुणाचल मे ये पहला मौका था जहाँ traditional के साथ-साथ modern फैशन शो देखने को मिल रहा था। :) खैर हम लोग तो ६ बजे पहुँच गए पर फैशन शो ७ बजे शुरू हुआ । उससे पहले सोलो डांस और ग्रुप डांस वगैरा होते रहे थे। और सभी ने बहुत ही अच्छा perform किया था।
खैर एक घंटे के इस डांस कार्यक्रम के बाद फैशन शो शुरू हुआ । और चूँकि पहले दिन पारंपरिक( traditional) फैशन शो था तो चांगलांग मे रहने वाली सभी tribes ने अपनी पारंपरिक वेशभूषा मे ये शो किया । और हर tribe के ट्रेडिशनल ड्रेस और इस शो को करने वाले models सभी बहुत traditional थे।
इस ट्रेडिशनल फैशन शो मे चांगलांग मे रहने वाली तकरीबन १७ tribes की पारंपरिक वेशभूषा देखने को मिली।जहाँ हर tribe की लड़कियों ने अलग-अलग तरह के गाले और ज्यूलरी पहनी थी वहीँ लड़कों ने अलग-अलग तरह की जैकट और कुछ ने बहुत ही अलग तरह के हेडगियर पहने थे। सभी की ड्रेस इतनी कलरफुल और आकर्षक थी कि बस क्या कहें।ये तागिन tribe है।
traditional फैशन शो मे म्यूजिक कुछ बहुत ही अलग सा पर बहुत ही अच्छा थोडा क्लासिकल था और इस शो को बहुत ही अच्छा कोरियोग्राफ किया गया था। पहले traditional फैशन शो को देखने के बाद modern फैशन शो देखने का भी तै हुआ। अरे भाई क्यूंकि traditional फैशन शो देख कर बहुत मजा जो आया था। और एक उत्सुकता भी थी की इनका modern फैशन शो कैसा होगा।
डेढ़ घंटे चले इस फैशन शो को देखने के बाद हम लोग वापिस लौट आये। और ये तय हुआ कि अगले दिन शाम को modern फैशन शो भी देखा जाएगा।
तो अगले दिन शाम को हम लोग फिर से फैशन शो देखने के लिए गए पर पहले दिन के अनुभव की वजह से थोडा देरी से गए पर माने ७ बजे गए पर इस दिन भी फैशन शो एक घंटे देरी से शुरू हुआ। और जैसे ही फैशन शो शुरू हुआ तो बस देखते ही बनता था। modern फैशन शो मे चांगलांग की tribes के जो traditional कपडे होते है उन्हें इस ख़ूबसूरती से modern look दिया गया था कि देखते ही बनता था।
जिन कपड़ों से लोग गाले (wrap around) बनाते है जो कि इनकी traditional ड्रेस है उन्ही को बहुत ही ख़ूबसूरती से अलग-अलग तरह की dresses मे बनाया गया था। जो कि एक बहुत ही अच्छा प्रयास था।
modern फैशन शो का म्यूजिक traditional से बिलकुल ही अलग था। जिस तरह कपडे और dresses अलग थे उसी तरह म्यूजिक भी अलग था। इस दिन पूरे शो के दौरान मइय्या - मइय्या गाना बजता रहा था जो इस शो के लिए बिलकुल परफेक्ट था। :)
और इस शो को भी बहुत ही अच्छा कोरियोग्राफ किया गया था। हाँ इस दिन models थोड़ी सी consious जरुर लग रही थी पर फिर भी उन लोगों ने इसे अच्छे से मैनेज किया। traditional के मुकाबले modern फैशन शो छोटा जरुर था पर अच्छा था।
Monday, April 4, 2011
हमारी फूलों की बगिया .....
अरे हम कोई गाना नहीं सुनवाने जा रहे है बल्कि हमने सोचा की क्यूँ ना आज आप लोगों को अपने बगीचे की कुछ सैर करवा दी जाए । अब आप लोग कहेंगे कि अब तो फूलों का मौसम कुछ ख़त्म हो रहा है और हम अब फूलों की बात कर रहे है। तो वो क्या है कि हम घर मे नवम्बर मे शिफ्ट हुए थे । और घर मे शिफ्ट होने के बाद ही फूलों के पौधे लगाए थे तो जाहिर सी बात है कि जब पौधे देर से लगाए थे तो फूल भी देर से ही आने थे। :)
और फिर हमारे carrey (doggi)से भी तो पौधों को बचना होता है क्यूंकि जब carrey दौड़ते है तो उसके पैरों से कुछ पौधे दब जाते थे। और हम लोग रोज गिनते थे कि आज कितने पौधे बचे।
ना केवल पौधे बल्कि जब फूल खिल गए तब भी यही हाल है । रोज देखते है कि आज कौन सा फूल टूटा या बचा।
काफी समय बाद अपनी बगिया मे ४-५ रंग के हमने गेंदे के फूल जिसमे सफ़ेद गेंदे का फूल भी है ।
गेंदे के फूल वो चाहे हजारा हो या फिर माला मे पिरोये जाने वाले छोटे -छोटे पीले और कुछ लाल से फूल ही क्यूँ ना हो । सभी खूब खिले ।
औए डहेलिया के इतने सारे रंग देखे कि क्या कहें। ए क ही पेड़ मे २ अलग-रंग के डहेलिया देखकर मन खुश हो जाता है।
वेर्बिना और जीनिया की तो बात ही क्या ।
पेंजी और पिटुनिया के खूबसूरत फूलों का तो कोई जोड़ ही नहीं।
वहीँ गजानिया और सालविया भी कुछ कम नहीं । गजानिया भी सूरजमुखी की तरह ही है । ये भी सूरज की रौशनी पड़ने पर यानी धूप मे ही खिलता है । और जिस दिन बारिश होती है उस दिन ये फूल नहीं खिलता है। ।
वैसे हमारे घर मे ऑर्किड भी धीरे-धीरे खिल रहे है । अब अरुणाचल मे रहे और ऑर्किड घर मे ना ना लगाए ये तो कोई बात नहीं।
वैसे आपको बता दे यहां पर ऑर्किड की जितनी वैराइटी मिलती है उतनी कहीं और नहीं मिलती है।इंडिया मे मिलने वाली तकरीबन साढ़े ग्यारह सौ वैराईटी मे से ६०० तरह के ऑर्किड यहां अरुणाचल मे ही मिलते है। और ऑर्किड के खिलने का समय फरवरी से लेकर मई-जून तक रहता है । जब ऑर्किड लगाए तब पता चला कि जहाँ कुछ ऑर्किड मिटटी मे लगाए जाते है तो कुछ सिर्फ कोयला,पत्थर और बालू भरे गमलों मे लगाए जाते है।
जहाँ कुछ ऑर्किड सिर्फ हवा (air orchid) से ही अपना पोषण लेते है। तो वहीँ कुछ ऑर्किड पेड़ों से ही अपना पोषण लेते है।
तो कहिये हमारे बगीचे की सैर कैसी रही।:)
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